पूरे जीवनकाल में हमेशा रक्षा करते हैं गुरु,जरूर जानें इनके बारे में

pooore हमेशा रक्षा करते हैं गुरु

pooore हमेशा रक्षा करते हैं गुरु लाइव हिंदी खबर :-राजिंदर सिंह महाराज

हिंदुओं का पवित्र पर्व रक्षाबंधन श्रवण मास की पूर्णिमा को देशभर में मनाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों की सुख-समृद्धि के लिए उनकी कलाई पर राखी बांधती हैं और कामना करती हैं कि हर खतरे और कठिनाई में यह राखी उनकी रक्षा करेगी।

महाराष्ट्र में इस पर्व पर समुद्र को नारियल अर्पित किए जाते हैं इसलिए इस दिन को नारियली पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस दिन नारियल फोड़कर किसी नए कार्य को आरंभ करना शुभ माना जाता है। पारसी लोग इस दिन समुद्र को नारियल भेंट करके जल देवता की अर्चना करते हैं।

यह बात अत्यंत रोचक है कि हमारे प्रत्येक सामाजिक एवं धार्मिक संस्कार – जन्म-मृत्यु, पूजा-पाठ, विवाह, व्रत और त्यौहार के साथ नारियल जुड़ा है। क्या कभी हमने सोचा है कि उसके पीछे क्या कारण है? यदि हम नारियल को ध्यान से देखें तो हमें इसके ऊपर तीन आंखें बनी हुई दिखती हैं जिसमें तीसरी आंख, शिवनेत्र का द्योतक है जो कि दोनों आंखों के मध्य स्थित दिव्य-चक्षु का स्मरण कराता है।

नारियल के मीठे पानी का स्वाद पाने के लिए हमें उसमें छेद करना होगा। इसी तरह अपने भीतर स्थित प्रभु को पाने के लिए हमारी तीसरी आंख का खुलना जरूरी है।

यह गुरु से ग्रहण किए गए मंत्र में निहित संदेश की याद दिलाता है और वो है आत्म-ज्ञान की प्राप्ति एवं प्रभु का साक्षात्कार। एक पूर्ण सद्गुरु प्रभु-प्राप्ति के लक्ष्य को पाने में मददगार होता है और हर प्रकार से शिष्य की रक्षा और संभाल करता है।

एक बहन जब अपने भाई को राखी बांधती है तो वह उसकी रक्षा करने का वचन देता है। लेकिन भाई की रक्षा कौन करेगा? कौन है जो इस जीवन में और इसके बाद हमारी रक्षा करने में समर्थ है? केवल एक सच्चा गुरु ही जीवन के उतार-चढ़ाव और संकट में हमारी सहायता करता है। वह हमें दीक्षा देकर एक अदृश्य रक्षाबंधन से बांध देता है जो पल-पल हमारी रक्षा करता है।

पूर्ण सद्गुरु से दीक्षा पाना, यह सुनिश्चित करना है कि हम जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटकर, जीते-जी मोक्ष प्राप्त करें। हमारे सद्गुरु, दया और करुणा से भरकर हमें दीक्षा का वरदान देते हैं।

वह अपनी तेजोमयी शक्ति से हमें उभारते हैं ताकि हमारा ध्यान सिमटकर शिवनेत्र पर एकाग्र हो सके। समर्थ सद्गुरु हमें सिद्ध मंत्र देकर, हमारे मन को शांत करता है और हमें इस योग्य बनाता है कि हम आत्मा के केंद्र दिव्य चक्षु पर ध्यान केंद्रित कर सकें।

इस बिंदु पर ध्यान केंद्रित होने के बाद हम अपने अंतर में दिव्य मंडलों की ज्योति और अनहद संगीत का अनुभव करते हैं। अंतरीय ज्योति एवं शब्द पर निरंतर ध्यान एकाग्र करने से हमारी आत्मा देहाभास से ऊपर उठकर दिव्य मंडलों में प्रवेश करती है। वहां सद्गुरु के ज्योतिर्मय स्वरूप से उसका मिलाप होता है, जो आत्मा को उच्च आध्यात्मिक मंडलों में ले  जाते हैं अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और कारण मंडलों के परे आत्मा के स्नेत  परमात्मा तक।

ये दिव्य मंडल, शांति एवं आनंद से पूर्ण हैं। देहरूपी पिंजरे से बाहर आकर हमारी खुशी का पारावार नहीं रहता और हम एक पक्षी की भांति उच्च से उच्चतर रूहानी मंडलों में परवाज करने   लगते हैं। दिव्य चेतनता से भरपूर इन मंडलों में पहुंचकर जो आनंद हमें मिलता है, शब्दों में उसका वर्णन संभव नहीं है। अपने स्नेत, परमात्मा से मिलकर जो परम आनंद आत्मा को मिलता है वह अतुलनीय है। तब दोनों मिलकर एक हो जाते हैं।

यह दिव्य आनंद और खुशी की अवस्था है। यही हमारे जीवन का परम लक्ष्य है। इस प्रकार का आत्मिक अनुभव और रक्षाबंधन हमें किसी सगे-संबंधी से नहीं मिल सकता। एक संत-सद्गुरु हमें आवागमन के चक्र से छुड़ाकर हमारे जीवन को सार्थक बनाता है। इस तरह वह हमारा सच्चा रक्षाबंधन करता है तथा इस जीवन में और इस जीवन के बाद भी हमारी रक्षा करता है।

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