जितिया व्रत के पीछे है एक बेबस मां की कहानी, इसलिए महिलाएं करती हैं ये व्रत

जितिया व्रत के पीछे है एक बेबस मां की कहानी, इसलिए महिलाएं करती हैं ये व्रत

लाइव हिंदी खबर :-इस व्रत में महिलाएं सूर्योदय से पहले ही कुछ खाती-पीती हैं और फिर उसके बाद पूरे दिन निर्जला उपवास करना होता है। व्रत का पारण पूजा के साथ किया जाता है और इसके बाद ही कुछ खाया जाता है। लेकिन ये जीवित्पुत्रिका व्रत क्या है और कब से शुरू हुआ, आइए आपको बताते हैं व्रत की कथा।

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

मिथिलांचल तथा पूर्वांचल में एक कथा बेहद प्रचलित है जो गन्धर्वों के राजकुमार ‘जीमूतवाहन’ से जुड़ी है। कहते हैं कि राजकुमार बड़े उदार एवं परोपकारी थे। इनके पिता ने शाही जीवन त्याग करते समय बड़ी ही कम आयु में पुत्र को राज्य के सिंहासन पर बैठाया और खुद आश्रम की ओर चल दिए।

कम उम्र के कारण राजकुमार का मन काफी चंचल था और उनका राजपाट में मन नहीं लगता था। उन्होंने कुछ दिन प्रयास किया परंतु जब सफलता हासिल ना हुई तो वे अपने भाईयों को राज्य सौंप खुद भी पिता के पास आश्रम चले गए।

आश्रम में जीमूतवाहन ने साधारण जीवन प्रारंभ किया और कुछ समय बाद उनका विवाह मलयवती नाम की राजकन्या से भी हो गया। एक दिन वे जंगल से गुजर रहे थे कि उन्हें किसी स्त्री के विलाप करने की आवाज आई। खोजने पर उन्होंने देखा कि एक वृद्ध महिला रो रही है। उन्होंने उसके रोने का कारण पूछा।

महिला ने बताया कि ‘मैं नागवंश की स्त्री हूं। नियमानुसार रोजाना पक्षीराज गरुड़ को एक नाग की बलि दी जाती है और आज मेरे ही पुत्र की बारी है। लेकिन मेरा केवल एक ही पुत्र है। अगर मैं इसकी भी बलि दी दूंगी तो मैं कैसे अपना जीवन व्यतीत करूंगी।’

यह सुन जीमूतवाहन भी चिंता में पड़ गए लेकिन उन स्त्री की परेशानी का हल निकालने की ठान ली। उन्होंने स्त्री से कहा कि ‘आप परेशान ना हों, आपके पुत्र को पक्षीराज नहीं लेकर जाएगा। उसकी बजाय आज मैं खुद को लाल पकडे में लपेटकर वध्य-शिला पर लेटूंगा।

कहे मुताबिक जीमूतवाहन खुद की बलि देने के लिए पहुंच गए। कुछ देर बाद पक्षीराज गरुड़ वहां आए और लाल कपड़े में ढके अपने शिकार को पंजे में लेकर उड़ गए। रास्ते में उन्हें यह आभास हुआ कि पंजों में दबोचा हुआ प्राणी ना तो रो रहा है और ना ही उसके मुंह से कोई आवाज आ रही है।

उन्हें यह शक हुआ कि आखिर खुद को मौत के घाट उतार रहा प्राणी इतना शांत कैसे हो सकता है। वे बीच रास्ते रुके और लाल पकड़ा हटाकर जीमूतवाहन को बाहर निकाला। जीमूतवाहन को देखते ही पक्षीराज ने उनसे उनका परिचय पूछा।

तब जीमूतवाहन नी स्त्री से हुई उनकी सारी बात बताई कि कैसे वह एक महिला से मिले और उसके पुत्र के प्राणों की रक्षा के लिए खुद का जीवन त्यागने का फैसला किया। यह जान पक्षीराज हैरत में पड़ गए कि आखिर कैसे कोई किसी स्त्री को एक खुशी देने के लिए खुद का ही जीवन दाव पर लगा सकता है।

जीमूतवाहन के इस साहस और बहादुरी को देखते हुए पक्षीराज ने उसे जीवनदान दिया और भविष्य में भी नागों की बलि की इस प्रथा पर विराम लगाया। इस कथा को आधार मानते हुए महिलाएं अपनी संतान की लंबी आयु और मंगलकामना के लिए अश्विन मास की सप्तमी तिथि को राजकुमार जीमूतवाहन की पूजा करती हैं।

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