अपनी चेतना में कृष्ण को जगाओ, फिर देखो कमाल

अपनी चेतना में कृष्ण को जगाओ, फिर देखो कमाल

लाइव हिंदी खबर :-भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘जो सबको मुझमें देखे और मुङो सब में देखे, ऐसे व्यक्ति से मैं कभी छुपा नहीं रहूंगा और न ही वह व्यक्ति मुझसे कभी दूर रहेगा। ’ भगवान कृष्ण की जिंदगी में सारे नौ रस थे।

उदाहरण के लिए, वह छोटे बच्चे से नटखट थे, योद्धा थे, आनंदी व्यक्ति थे और ज्ञान का स्रोत भी थे।  वह एक आदर्श मित्न और गुरु थे।  अष्टमी का उनका जन्म आध्यात्मिक और भौतिक संसार पर उनका प्रभुत्व जताता है।  बहुत अच्छे शिक्षक और आध्यात्मिक प्रेरणा स्रोत होने के साथ वे परिपूर्ण राजनीतिज्ञ थे।

दूसरी ओर वे योगेश्वर थे और नटखट माखन चोर भी।  उनका बर्ताव चरम सीमाओं का एकदम सही संतुलन है, शायद इसलिए उनके व्यक्तित्व की थाह लेना मुश्किल है।  अवधूत से बाहरी दुनिया और भौतिक व्यक्ति बेखबर होते हैं और राजनीतिज्ञ और राजा आध्यात्मिक दुनिया से।  कृष्ण तो द्वारकाधीश और योगेश्वर दोनों हैं।

कृष्ण को समझने के लिए राधा, अर्जुन या उद्धव बनो।  तीन तरह के लोग भगवान की शरण लेते हैं- प्रेमी, दुखी और ज्ञानी।  उद्धव ज्ञानी थे,  अर्जुन दुखी और राधा प्रेम थीं।  कोई किसी से बेहतर नहीं, सब अच्छे हैं।

कृष्ण की सीखें हमारे वक्त के लिए सबसे अनुकूल हैं, इस रूप से कि वे न तुम्हें भवसागर में खोने देती हैं, न ही निर्लिप्त होने देती हैं।  वे आपके अक्रियाशील और तनावयुक्त व्यक्तित्व को केंद्रित एवं ऊर्जस्वी बनाकर फिर से रौशन करती हैं।

कृष्ण हमें भक्ति भाव के साथ कौशल सिखाते हैं।  गोकुलाष्टमी मनाना मतलब अत्यंत विरुद्ध फिर भी सुसंगत गुणों को आत्मसात करना और अपने जीवन में प्रत्यक्ष में लाना है।  कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘तुम मुङो प्रिय हो। ’ फिर कहते हैं, आत्मसमर्पण करो।

आत्मसमर्पण मान लेने से शुरू होता है।  पहले तुम्हें मान लेना है, धारणा बनानी है।  यह मान लेना है कि तुम उस दिव्य शक्ति के प्यारे हो तब आत्मसमर्पण होगा।  आत्मसमर्पण कोई क्रिया नहीं है बल्कि मानना है।  कोई स्वतंत्न अस्तित्व नहीं है।  किसी भी व्यक्ति का स्वतंत्न अस्तित्व नहीं होता।

गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं- वह मुङो प्रिय है जो लोगों को धन्यवाद देते हुए नहीं फिरता, न ही किसी से घृणा करता है।  धन्यवाद देना तथा उपकृत महसूस करना यह दर्शाता है कि तुम किसी और के अस्तित्व में  विश्वास करते हो, न कि उस दिव्य शक्ति में जो सब पर शासन करती है।

जब तुम उपकृत महसूस करते हो तब तुम कर्म के तत्वों का या उस दैवी शक्ति की योजना का आदर नहीं कर रहे।  लोगों को वे जैसे हैं उसके लिए उनकी सराहना करो।  वे क्या करते हैं उसके लिए उन्हें धन्यवाद मत दो।  नहीं तो तुम्हारी कृतज्ञता तुम्हारे अहंकार पर केंद्रित हो जाएगी।

तुम आभारी रहो पर किसी कार्य के लिए नहीं।  हर व्यक्ति उस परम शक्ति के हाथ की कठपुतली है, धन्यवाद देना या उपकृत रहना अज्ञान का प्रदर्शन है।  सब कुछ उस विधाता द्वारा शासित, नियंत्रित और प्रबंधित है, यही चेतना यही जागृति तुम्हारे हर कार्य में हर कर्म में झलकनी चाहिए, उसे अपनी मनोदशा मत बनाओ।

अत: जन्माष्टमी मनाने का सबसे प्रामाणिक तरीका यह समझना है कि तुम दोहरी भूमिका निभा रहे हो- इस ग्रह के एक जिम्मेदार मानव होने के साथ यह समझ लो कि तुम हर घटना से ऊपर हो।

थोड़ा सा अवधूत को आत्मसात करना और थोड़ा सा सक्रियता को अपने जीवन में सोखना यही जन्माष्टमी मनाने का असली महत्व है।  कृष्ण को अपनी चेतना में जगाओ- ‘कृष्ण मुझसे दूर नहीं, अलग नहीं, वह मुझ में हैं’ – यह भावना तुम्हारी जिंदगी को कृष्ण से भर देगी।

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