लाइव हिंदी खबर :- मथुरा, उत्तर प्रदेश में हाल ही में आध्यात्मिक गुरु स्वामी रामभद्राचार्य द्वारा संत प्रेमानंद को लेकर दिए गए बयान ने संत समाज में हलचल पैदा कर दी है। इस बयान को लेकर विभिन्न संतों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं। इसी क्रम में संत राधानंद गिरी ने संतुलित और विचारशील टिप्पणी की है। उन्होंने कहा कि संतत्व की असली पहचान आपसी सम्मान और सहयोग में है, न कि आलोचना और कटाक्ष में।

संत राधानंद गिरी ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “यह वक्तव्य हमें यह सिखाता है कि किसी भी संत को इस तरह बोलना उचित नहीं है। यदि संत ही आपस में आलोचना करने लगेंगे, तो फिर संतत्व की गरिमा का क्या मूल्य रह जाएगा? संतों का धर्म है कि वे समाज को मार्गदर्शन दें, न कि समाज में भ्रम या मतभेद फैलाएं।”

उन्होंने आगे कहा कि संतों को चाहिए कि वे एक-दूसरे की भावनाओं को समझें, उनके योगदान का सम्मान करें और यह स्वीकार करें कि हर संत अपने-अपने ढंग से महान और दिव्य हैं। संत राधानंद गिरी का मानना है कि जब संत एक-दूसरे की निंदा करते हैं तो भक्तों और समाज के भीतर गलत संदेश जाता है। इससे संत परंपरा की गरिमा पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो सकता है।
संत राधानंद गिरी ने यह भी जोड़ा कि भारतीय संत परंपरा का मूल संदेश हमेशा से सद्भाव, सेवा और आध्यात्मिक उत्थान रहा है। ऐसे में यदि संत समाज में ही मतभेद और कटुता दिखाई देगी तो यह न केवल परंपरा के लिए बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी चिंता का विषय होगा। उन्होंने अनुयायियों से अपील की कि वे संतों के बीच किसी प्रकार की आलोचना या विवाद पर ध्यान देने के बजाय उनके उपदेशों और मार्गदर्शन से प्रेरणा लें।
इस पूरे घटनाक्रम पर संत राधानंद गिरी का संदेश एक संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। उन्होंने यह साफ किया कि मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन उन्हें सार्वजनिक आलोचना का रूप देना उचित नहीं है। हर संत अपने आचरण, तपस्या और उपदेशों के कारण महान है। इसलिए समाज को चाहिए कि वह उनके बीच की छोटी-छोटी बातों से प्रभावित न होकर उनके आध्यात्मिक योगदान को अपनाए।
इस तरह संत राधानंद गिरी का यह बयान न केवल संत समाज को संयम और मर्यादा का पाठ पढ़ाता है, बल्कि भक्तों और आम लोगों को भी यह सीख देता है कि सच्चे अर्थों में संतत्व का अर्थ आपसी सम्मान, सहयोग और समर्पण में निहित है।