अनुसंधान में सामने आया है कि दक्षिणी राजस्थान में कुपाेषण की वजह परंपरागत खाद्यान्न् से विमुख होना भी है। असल में उस वक्त आदिवासी परिवार घास-फूस वनस्पति की रोटी और सब्जियाें से पेट भरते थे। दक्षिणी राजस्थान के वीराें ने इन्हीं कदं-मूल अाैर घास की रोटियां खाकर मुगल सेना को लोहे के चने चबवाए थे। लेकिन इस पाैष्टिक आहार को जनजाति के लोग भूल बैठे।यही कारण है कि परम्परागत खाद्यान्न छोड़ते ही बीमारियों ने घर बना लिया। अधिकतर प्रसूताएं रक्ताल्पता की शिकार रहती हैं जिससे बच्चे भी कुपोषित पैदा होते हैं। एक अनुसंधान के अनुसार महराणा प्रताप कालीन खाद्य व कृषि संस्कृति को पुनर्जीवित करने की जरूरत है जो कुपाेषण समाप्त करने में कारगर साबित हाे।
द्रव्य गुण विज्ञान विभाग, राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, उदयपुर में कार्यरत प्राे०कामिनी काैशल के अनुसार प्रताप ने अपामार्ग वनस्पति के बीज की रोटियां खार्इ थी जिससे बार-बार भूख नहीं लगती। दक्षिण राजस्थान में कोई ऐसी वनस्पतियां है। जिनका सेवन आदिवासी परिवार भी करते थे।

ये वनस्पित पोषक
वागधरा संस्थान ने कोई वनस्पतियाें की अहमदाबाद प्रयोगशाला में जांच करवाई, जिसमें पाेषक तत्वाें की प्रमाणिक जानकारी मिली। कुरी घास में 12 फीसदी आयरन, 5 ग्राम प्राेटीन व 36 ग्राम कार्बोहाइड्रेट है। माल (बावटा) विटामिन सी व बी – 12 का भंडार है तो कांगणी व चीना में विटामिन सी, बी -9 व बी-12 की अधिकता रहती है। कोदाे में 12.5 फीसदी प्राेटिन, 86 ग्राम व विटामिन सी 22 फीसदी मिलता है। कैल्शियम, कैलोरिज व आयरन का बेहतरीन स्त्राेत है। इसमें 69 ग्राम कार्बोहाइड्रेट है।
पैष्टिक खाद्यान्न
जब महराणा काे जंगल में जीवन व्यतित करना पडा था, तब मेवाड की मगरियाें और घाटियाें में घास की विभिन्न प्रजातियों ने पोषक तत्वाें से पोषित किया था। प्रताव व उनकी सेना ने अपमार्ग के बीजाें की रोटियां खाई थी। जिसे खाने से भूख नहीं लगती। इसके अलावा रागी, कुरी, कोदों, कांगनी, चीना, लाेयरा, सहजन से बनी खाद्य सामग्री भी खूब खाई जाती। इनका वर्षों तक भंडारण करने के बावजूद कीट प्रकोपर नहीं होता है। उदयपुर के अलावा बांसवाडा व डूंगरपुर जिले में इनकी अधिकता है।