लाइव हिंदी खबर :-‘एकेश्वरवाद’ की सीख देने वाले गुरु नानक देव जी ने सिख धर्म की नींव रखी थी। उनके बाद एक-एक करके इस धर्म में 10 गुरु हुए। आखिरी मानवीय गुरु, ‘गुरु गोबिंद सिंह जी हुए, उनके बाद उन्होंने सभी गुरुओं के उपदेशों को एकत्रित करके एक ग्रन्थ बनवाया और उसे गुरु की उपाधि देते हुए सिखों के 11वें गुरु के रूप में सुशोभित किया। अब सिख ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ को ही अपना गरू मानते हैं और उन्हीं के सामने सिर झुकाते हैं। आज यानी 6 अगस्त को सिखों के 8वें गरू, गुरु हरकिशन साहिब जी का प्रकाश उत्सव यानी उनकी जयंती है। आइए जानते हैं उनकी कहानी…
– गुरु हरकिशन महज 5 वर्ष के थे जब उन्हें सिख धर्म की गुरु गद्दी पर बैठाया गया। पिता गुरु हरिराय जी (सिखों के 7वें गुरु) की मृत्यु के बाद उस समय गुरु गद्दी के वारिस के रूप में इन्हें नाजुक-सी उम्र में इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई
– गुरु हरकिशन जी का जन्म 23 जुलाई, 1656 को कीरतपुर (पंजाब) में पिता गुरु हरिराय और माता कृष्णा जी (सुलाखना जी) के यहां हुआ। उनके जन्म स्थान पर आज के समय में उनकी याद में गुरुद्वारा शीश महल बनाया गया है
– गुरु हरकिशन जी के पिता, गुरु हरिराय जी के दो पुत्र थे- राम राय और हरकिशन। किन्तु राम राय को पहले ही सिख धर्म की मरायादाओं का उल्लंघन करने के कारण गुरु जी ने बेदखल कर दिया था। इसलिए मृत्यु से कुछ क्षण पहले गरु हरिराय ने सिख धर्म की बागडोर अपने छोटे पुत्र, जो उस समय केवल 5 वर्ष के थे, उनके हाथ सौंप दी और शांति से ‘अकाल पुरख’ (परमात्मा) की गोद में समा गए
– हरकिशन अब सिखों के 8वें गुरु बन गए थे। उनके चेहरे पर मासूमियत थी, लेकिन कहते हैं कि इतनी छोटी उम्र में भी वे सूझबूझ वाले और ज्ञानी थे। पिता के जाते ही उन्होंने किसी तरह का कोई शोक नहीं किया बल्कि संगत मेंयह पैगाम पहुंचाया कि गुरु जी परमात्मा की गोद में गए हैं, इसलिए उनके जाने का कोई शोक नहीं मनाएगा
– गुरु हरिराय जी के जाने के बाद जल्द ही बैसाखी का पर्व भी आया जिसे गुरु हरकिशन ने बड़ी ही धूमधाम से मनाया। उस साल यह पर्व तीन दिन के विशाल समारोह के रूप में मनाया गया था
– मुगल बादशाह औरंगजेब को जब सिखों के नए गुरु के गुरु गद्दी पर बैठने और थोड़े ही समय में इतनी प्रसिद्धी पाने की खबर मिली तो वह ईर्ष्या से जल-भुन गया और उसके मन में सबसे कम उम्र के सिख गरू को मिलने का इच्छा प्रकट हुई। वह देखना चाहता था कि अकहिर इस गुरु में क्या बात है जो लोग इनके दीवाने हो रहे हैं
– मुगल बादशाह ने गुरु हरकिशन को अपने दरबार में आने के लिए आमंत्रित किया। गुरु जी भली-भांति समझ गए थे कि यह मुगल बादशाह की चला है। इससे पहले भी बड़े भाई को उसने अपनी चाल में फंसाकर सिख धर्म से बेदखल करवा दिया। लेकिन गुरु जी ने जाने से इनकार नहीं किया और वे दिल्ली की ओर रवाना हो गए
– दिल्ली में वे राजा जय सिंह के महल पहुंचे। सिख इतिहास के मुताबिक यह वही महल है जिसे आज के समय में ‘गुरुद्वारा बंगला साहिब’ के नाम से जसना जाता है। दिल्ली पहुंचकर गुरु हरकिशन बादशाह औरंगजेब से मिले। औरंगजेब के दरबार में वे जैसे ही पहुंचे, कपटी बादशाह ने उनके सामने दो बड़े थाल रखवाए, एक में महंगे वस्त्र और हीरे-जवाहरात थे और दूसरे मने कटे-फटे किसी गरीब के वस्त्र
– गुरु जी ने गरीब के वस्त्र वाले थाल को चुना। गुरु हरकिशन का यह विनम्र स्वभाव देख मुगल बादशाह दंग रह गया। गुरु गुरु हरकिशन वहां से लौट आए लेकिन बादशाह ने उन्हें फिर से आमंत्रित करना चाहा। अब गुरु हरकिशन समझ चुके थे कि बादशाह सिर्फ और सिर्फ उन्हने और सिख मर्यादाओं को बेइज्जत करने के मकसद से उन्हें बार-बार आमंत्रित कर रहा है। इस बार उन्होंने जाने से इनकार कर दिया और कहा कि भविष्य में भी वे कभी बादशाह से मिलना नहीं चाहेंगे
– जिस समय गुरु जी दिल्ली में थे, उस समय वहां ‘चेचक’ की महामारी चल रही थी। दिल्ली के लोगों का हाल देख गुरु जी का दयावान दिल पसीज उठा और उन्होंने संगत की सेवा करने के लिए दिल्ली कुछ समय और रुकने का फैसला किया
– गुरु हरकिशन दिन रात लोगों की सेवा करते और अंत में उन्हें भी इस महामारी ने अपनी चपेट में ले लिया। अपने आखिरी पलों में गुरु जी ने अपने मुख से कुछ शब् कहे, ‘बाबा बकाले’। यानी सिखों के अगले गुरु बकाला में हैं। इसके बाद उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया और अकाल पुरख की गोद में जा बैठे।