75 दिनों तक मनाया जाता है इस शहर में दशहरा, रावण की नहीं जलाई जाती है प्रतिमा

75 दिनों तक मनाया जाता है इस शहर में दशहरा, रावण की नहीं जलाई जाती है प्रतिमा

लाइव हिंदी खबर :-क्या आप जानते हैं कि देश में एक ऐसा शहर भी है 75 दिनों तक दशहरा (विजय दशमी) मनाता है। खास बात ये है कि दशहरा दिन यहां भगवान राम और रामायण को समर्पित नहीं है बल्कि देवी दंतेश्वरी के लिए मनाया जाता है। आइए आपको बताते हैं कौन सी है वो जगह और कहां मनाई जाता 75 दिनों का दशहरा।

बस्तर दशहरा के नाम से है फेमस

छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके की दशहरा पूरे देश में फेमस है। 75 दिनों तक होने वाले इस दशहरा को बस्तर दशहरा के नाम से जाना ही जाता है। हर साल यहां दशहरे के समय में सैलानी इस दशहरा का हिस्सा बनने आते हैं। मान्यता है कि भगवान राम ने अपने वनवास का लगभग दस साल दंडकारण्य में बिताया था जो बस्तर का ही प्राचीन इलाका माना जाता है इसके लिए ही हर साल यहां दशहरा मनाया जाता है।

मां दंतेश्वरी की विशेष पूजा 

बस्तर शहर में दशहरा का दिन इसलिए नहीं मनाया जाता कि इस दिन भगवान राम लंकापति रावण का वध करके आए थे बल्कि इस दिन मां दंतेश्वरी की पूजा की जाती है। दशहरे के दिन उनकी विशेष पूजा होती है और एक भव्य रथ पर दंतेश्वरी मां की सवारी निकालकर पूरे शहर में घुमाई जाती है।

75 दिन पहले से शुरू होता है जश्न

मां दंतेश्वर को समर्पित इस दशहरे की तैयारियां और जश्न 75 दिन पहले से होने लगती है। सावन महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से इन तैयारियों की शुरूआत हो जाती है। इसी दिन से मां दंतेश्वरी के लिए लकड़ी के भव्य रथ जिसको पाट जात्रा कहा जाता है उसको बनाने की शुरूआत हो जाती है।

सुनी जाती है जनता की समस्या

75 दिनों तक चलने वाला यह त्योहार दशहरे बाद तक चलता है और मुरिया दरबार रस्म से इसकी समाप्ति होती है। इस रस्म में बस्तर के महाराज अपना दरबार लगाकर आम नागरिकों की समस्याएं सुनता हैं और इसका हल निकालते हैं। बस्तर के दशहरे को देश का सबसे ज्यादा दिन तक मनाया जाने वाला त्योहार भी कहते हैं।

रथ बनाने की परंपरा है 600 साल पुरानी

रथ बनाने का काम केवल संवरा जनजाति के लोग ही करते हैं। मगर आधुनिक भारत में यह जनजाति लगभग विलुप्त हो गई है। इसलिए दूसरे जनजाति वालों को रथ बनाने के लिए अपनी जाति को परिवर्तित करना पड़ता है तभी वह रथ बना सकते हैं। नवरात्रि शुरू होने के बाद इस रथ की परिक्रमा प्रारंभ होती है।

कांटे के झूले में काछन देवी

पहले दिन मिरगान जाति की एक छोटी बच्ची को देवी बनाया जाता है जिसे कांटे के एक झूले पर बिठाया जाता है। इस परंपरा को काछन गादी कहते हैं। इसके बाद काछन देवी से दशहरा मनाने की अनुमति ली जाती है। इसके बाद ही यह परंपरा आगे बढ़ती है और मां दंतेश्वरी की पूजा की जाती है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top